मंगलवार, जुलाई 26, 2011

हिन्दुस्तान में थूकने और मूतने की खूली छूट है ।

सब्जी मन्डी की कसम । आज उस मास्टर का किस्सा खत्म कर ही देते हैं । मास्टर से अब मेरी बोलचाल न के बराबर है ।
लेकिन अभी भी मुझे कुछ छोटे छोटे अनुभव याद हैं । 
दिल्ली दर्शन के बाद, साल 2000 में जून महीने के पहले हफ़्ते में उस मास्टर ने फ़िर आकर कहा - त्रिपाठी जी ! क्या इरादा है । गर्मियों का मौसम है । सबकी छुट्टियाँ हैं । मैं आज तक अपने बच्चों को कभी " हिल स्टेशन " नही लेकर गया । इस बार " कुल्लू मनाली " चलें
मैं ठिठका । मैंने सोचा । कही ऐसा न हो जाये कि सस्ते के चक्कर में ये मास्टर किसी ऐसी जगह ले जाये । जहाँ आसपास


होटल ही न हो । और ये वहाँ बोल दे कि - रात ही तो काटनी है । सडक पर ही सो जाओ । हमने कौन सा सडक खरीद कर घर ले जानी है ।
फ़िर मैंने ये भी सोचा कि बाथरूम की जगह ये.. ये न बोल दे कि - त्रिपाठी जी ! बाथरूम की क्या समस्या है ? सब जगह बाथरूम ही तो है । जहाँ मर्जी कर लो । हिन्दुस्तान में थूकने और मूतने की खूली छूट है । राजीव राजा ! इन बातों के डर से मैंने उसके साथ उस दिन घूमने जाने से मना कर दिया ।

देखो राजा ! ये मास्टर भी कितना ना..यक आदमी है । मास्टर होकर भी कसरत करने वालों के खिलाफ़ है । कहता है । सिर्फ़ पी टी करो । मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि साल 2000 के दिसम्बर महीने के आखिरी हफ़्ते में मैं इसको अपने साथ 1 फ़िल्म दिखाने ले गया । मैंने सोचा । अकेला क्या जाऊँगा । मास्टर अपना पडोसी है । उसे साथ ले चलता हूँ । हम दोनों शाम वाला शो देखने चल पङे । मैंने टिकट खरीद ली । जब तक फ़िल्म शुरू नहीं हुई । तब तक मास्टर फ़िल्म के पोस्टर को बडे ध्यान से देख रहा था ।

खैर फ़िल्म शुरू हुई । इन्टरवल में मैंने मास्टर को काफ़ी पिलायी । मास्टर फ़िल्म खत्म होने तक चुपचाप रहा । जब फ़िल्म खत्म हुई । तब हम दोनों बाहर जाने को उठे ।
तब मास्टर अचानक बोल पङा - त्रिपाठी जी ! ये आप मुझे कैसी फ़िल्म में ले आये ?
मैंने मास्टर से कहा - भई ! कितनी पावरफ़ुल फ़िल्म थी । हीरो और विलेन दोनों की क्या जबर्दस्त बाडी थी ।
इतने में हम कार पार्किंग तक आ गये । कार में बैठकर जब हम घर को चल पङे । तब मास्टर मेरे को रास्ते में समझाने लगा ।
मास्टर बोला - त्रिपाठी जी ! बाडी वाडी से कुछ नहीं होता । जब मैं जवान था । तो 1 बार मैं फ़िजीकल का टेस्ट देने गया । मुझसे कहा गया कि - या तो 400 मीटर की दौङ लगाओ । या लोहे का गोला ( शार्टपुट ) फ़ेंक कर दिखाओ ।
तो मैंने सोचा कि - कौन साला दौङ

लगायेगा । ऐसे ही साले भगा भगा कर जान निकाल देंगे । ऐसा करता हूँ । गोला फ़ेंक कर घर को निकल लेता हूँ
जब मैं मैदान में पहुँचा । तो वहाँ 1 पहलवान टायप आदमी खङा था । उसकी बहुत बाडी थी । मुझे उसको देखकर डर लग रहा था । वो भी मुझे घूर रहा था । जब उसकी गोला फ़ेंकने की बारी आयी । तो उसने गोला फ़ेंका । उसका फ़ेंका गोला थोङी दूरी पर जाकर गिर गया । फ़िर मेरी बारी आयी
मैंने उस पहलवान की तरफ़ देखते हुए डरते डरते गोला उठाया । और फ़ेंक दिया । मेरा फ़ेंका गोला उस पहलवान के फ़ेंके हुये गोले से भी अधिक दूर गिरा । पहलवान हैरानी से मेरी तरफ़ देखने लगा ।

फ़िर मैंने उसे कहा - ये तो मैंने डरते हुये फ़ेंका था । अब मैं दोबारा इसे फ़ेंकूँगा । फ़िर तुम देखना कि ये कहाँ जाकर गिरेगा ।
मास्टर की बात सुनकर मैं सोचने लगा कि - तब भी तुमने कौन सा पाकिस्तान मे फ़ेंक देना था । 1 बात और याद आयी । मास्टर ने 1997 के आसपास 1 रिक्शे वाले को अपने घर किराये पर रख लिया । रिक्शे वाला दिन भर रिक्शा चलाता था । उसकी पत्नी लोगों के घरों में झाङू पोंछा लगाती थी । उन दोनों के 2 छोटे बच्चे थे । 1 लङका और 1 लङकी । रिक्शे वाले की पत्नी बहुत ही मोटी थी । रंग काला था । बिलकुल भैंस लगती थी । रिक्शेवाला भी बिल्कुल काला था । चेहरे पर हल्की मूँछे थीं । लेकिन उसने सर पर बाल संजय दत्त जैसे रखे हुये थे । लम्बे लम्बे । जैसे संजय दत्त ने 1991 मे बनी फ़िल्म " सङक " में रखे थे

वो अपने आपको संजय दत्त से कम नहीं समझता था ।
मेरे पास भी वो कभी न कभी आ जाता था । कई बार स्कूटर खराब होने पर मैं उसके रिक्शे पर ही कालेज चला जाता था । वो मुझे कहता था - त्रिपाठी जी ! मुझे पूजा भट्ट बहुत अच्छी लगती है । सङक फ़िल्म तो कमाल की थी । संजय दत्त की क्या एक्टिंग थी । फ़िल्म में जो गुंडा था । उसने हिजङे की क्या शानदार एक्टिंग की है । वो रिक्शे वाला फ़ैशनेबल था । अपने लम्बे बालों को दही से धोता था ।
1 दिन मास्टर ने मुझे कहा - ये साला रिक्शे वाला नालायक आदमी है । जितना कमाता है । उतना ही खर्च भी करता है ।

साला नालायक आदमी भविष्य के लिये कुछ बचत ही नहीं करता । ये साला शराब भी पीता है । और सूअर का मीट भी खाता है ।
मैंने कहा - मास्टर जी ! ये बेचारा गरीब आदमी है । इसने कौन सा बचत करके महल खङा करना है । या बच्चों को कुछ पढाना लिखाना है । ऐसे बहुत से लोग है । जिनका काम भगवान सहारे ही चल जाता है ( वैसे असल में सबका काम भगवान सहारे ही चलता है । पर किसी को पता नहीं चलता )
मैंने फ़िर उसे कहा - मास्टर जी ! इन लोगों की सोच सिर्फ़ इतनी ही होती है । बेचारा करे भी तो क्या करे । सारा दिन सङकों पर रिक्शा चलाना पङता है । अगर अपने कमाये हुए थोडे से पैसों से कुछ मजा कर भी लिया । तो इतना तो उसे अधिकार है । थोडा सा कमाते है । कभी कभी कुछ अच्छा खा पी लेते हैं ।
तब मास्टर बस लगा गाँधी और नेहरू के नाम पर भाषण देने ।
मैंने मन में कहा - जा अपनी....?
खैर 1 बार उस रिक्शे वाले का उस मास्टर से झगडा हो गया । बात यूँ हुई । 1 बार शाम को रिक्शे वाले का ससुर आ गया । उसका ससुर फ़ौज में जमादार टाइप नौकरी करता था । रिटायर हो चुका था । लेकिन अपने आपको रिटायर फ़ौजी अफ़सर से कम नहीं समझता था ।
उस दिन उन दोनों ( ससुर और दामाद ) ने दबाकर शराब पी । और रात को देर से घर लौटे । मास्टर ने उस रोज रात 10 बजे तक सब ताले वगैरह लगा दिये । रिक्शेवाला और उसका ससुर रात 10 बजे के बाद आये । लेकिन अन्दर कैसे जाते । ताले लगे हुये थे । उन्होंने बैल बजाई । लेकिन मास्टर ने गुस्से में दरवाजा नहीं खोला ।
रिक्शे वाले की पत्नी घर के अन्दर थी । और डरी हुई थी । तब शराब चङी होने के कारण रिक्शेवाले ने और उसके ससुर ने मास्टर को गन्दी गन्दी गालियाँ देनी शुरू कर दीं । रिक्शे वाले का ससुर तो यहाँ तक भी बोल रहा था कि - ओये मास्टर ! तू साला क्या चीज है । सिर्फ़ 2 पैसे का मास्टर है । मैं फ़ौज से रिटायर हुआ हूँ । तू बाहर निकल साले तेरी.......।

रिक्शे वाला भी बोल रहा था - अबे ओये मास्टर ! साले मैं तेरी औकात जानता हूँ । हिम्मत है । तो बाहर निकल भैण....
राजीव राजा ! अडोस पडोस वाले गवाह हैं । उस रात मास्टर बाहर नहीं निकला । सिर्फ़ अन्दर खिडकी से बिल्ली की तरह बाहर को ताक रहा था ( वैसे मास्टर अपने आपको बहुत बहादुर समझता है )
खैर, रिक्शे वाला और उसका ससुर मास्टर को रात के 12 बजे तक गालियाँ देते रहें । और फ़िर वहीं कहीं सङक पर सो गये ।
सुबह जब नशा टूटा । फ़िर शर्मिंदगी महसूस हुई । लेकिन उस सुबह मास्टर ने उस रिक्शे वाले को शराफ़त से कमरा खाली करने को कह दिया । रिक्शे वाले ने भी कमरा खाली कर दिया ।
वो रिक्शे वाला मुझे आज भी कहीं न कहीं दिख जाता है । मुझे देखते ही वो मेरे को सैल्य़ूट मारता है । मैं भी स्कूटर रोककर उसका हालचाल पूछ लेता हूँ ।
राजीव राजा ! मेरी आदत है । मैं अमीर गरीब का अधिक भेदभाव नहीं करता । जो भी प्यार से मिले । तो दिल 

खोलकर मिलता हूँ । मैं तो सिर्फ़ प्यार का दीवाना हूँ ।
मास्टर वैसे आजकल मास्टर नहीं रहा । वकील बन गया है । सिर्फ़ कुछ साल पहले की बात है ।
मास्टर की पत्नी बोली - हमारी बेटियाँ अभी तो छोटी हैं । लेकिन 1 दिन बङी हो जायेंगी । इनकी शादी भी करनी पङेगी । अगर आप वकालत की पढाई कर लो ( प्राइवेट तौर पर ) तो हमारा सामाजिक रूतबा बङ जायेगा । क्युँ कि टीचर की बेटी को अच्छा रिश्ता नहीं आयेगा ।
मैंने मन में सोचा - भैण च.......कैसे लोग हैं । टीचर को " पिलर आफ़ दी सोसाईटी " कहते हैं । सभ्य समाज की बुनियाद । लेकिन इन लोगों को अपने टीचर होने पर शर्म है
वैसे मैंने 1 बार मास्टर के मुँह से भी सुना था कि - त्रिपाठी जी ! उस समय बस जैसी नौकरी मिल गयी । हमने कर ली । सिर्फ़ दाल रोटी के लिये ।

वैसे मास्टर पुलिस वाले के बहुत खिलाफ़ रहता है । कहता है । ये लोग हमेशा ही गलत होते हैं ।
मैंने मन में कहा - जैसा समाज वैसी पुलिस । जब समाज ही गलत लोगों से भरा पङा है । तो सब कुछ गलत ही मिलेगा । चाहे पुलिस हो । चाहे मास्टर । चाहे बाबा ।
राजीव राजा ! पुरानी हिन्दी फ़िल्मों में जैसे हीरोइन का बाप बङा आदर्शवादी और अपनी बेटी से अँधा प्रेम करने वाला दिखाया जाता था । ये मास्टर भी कुछ कुछ ऐसा ही है । इसी अँधे प्रेम के चक्कर में इसने अपने पैर पर कुल्हाङी मार ली
हमारी कालोनी में 1 डाक्टरों का परिवार है । उस परिवार में सब लोग डाक्टर ही हैं । ये मास्टर उनसे बहुत प्रभावित है । शायद इस वजह से इसने सोच लिया होगा कि अपनी बङी बेटी को डाक्टर ही बनाऊँगा ।
दूसरा कारण ये हो सकता है कि ये अपने परिवार और ससुराल वालों को ये दिखाना चाहता हो कि मैं भी किसी से कम नहीं । क्युँ कि इन दोनों पति और पत्नी को इनके घर वालों ने प्रेम विवाह करने पर घर से बेदखल कर दिया था । इसलिये इन दोनों में कुछ हीन भावना भी छुपी हुई है । इसलिये अपनी बङी बेटी जो पढने में महाना..यक है ( वो सब कामों में ना...यक है । सिर्फ़ आशिकी को छोङकर ) उसने बङी मुश्किल से 12वीं पास की थी ।
मेडिकल में उस लडकी को सारे हिन्दुस्तान में किसी भी मेडिकल कालेज में एडमिशन नहीं मिली । किसी चूतिये के कहने पर मास्टर ने अपनी बेटी की एडमिशन नेपाल के किसी नये बने मेडिकल कालेज में करवा दी । मुझे किसी ने बताया है कि वो कालेज बनाने वाले केरला तरफ़ के हैं । वो लोग कम नम्बर वाले बच्चों को एडमिशन दे देते हैं ( मोटा पैसा लेकर ) और हर साल पास कर देते हैं । तो इस मास्टर ने अपनी बेटी की एडमिशन वहाँ 22 लाख ( पूरे 5 साल की फ़ीस खाने पीने सहित ) में करवा दी । पैसा उसने अपने छोटे से घर पर कर्जा लेकर लिया । लेकिन समस्या ये है कि वहाँ का पढा हुआ बच्चा यहाँ भारत में नौकरी नहीं कर सकता ।
उसे वहाँ से 5 साल पढाई करके यहाँ आकर 1 टेस्ट पास करना होगा ( जो बहुत ही कठिन किया गया है ) तब जाकर उसे डाक्टरी करने का लायसेंस मिलेगा । मास्टर की बेटी वैसे ही महा..लायक है । कुछ साल पहले जब मास्टर की बेटी शायद सातवीं या आठवीं कक्षा में थी ।
उसने मुझसे पूछा कि - अंकल जी ! भोपाल का " प्राइम मिनिस्टर " कौन है ?
मैं उसका प्रश्न सु्नकर हैरान हुआ । लेकिन बोला कुछ नहीं ।
देख लिया राजा । उस लङकी की समझ । मास्टर ने भावना में बहकर गलती ही की है । अब ऐसे 2 नम्बर में पढे लिखे और पास हुये लोग क्या काम करेंगे ।
इसी महीने की बात है । मैं ई टी वी मध्य प्रदेश चैनल पर खबरें सुन रहा था । मध्य प्रदेश के किसी छोटे शहर में 1 आदमी घायल हालत में लाया गया । किसी लेडी डाक्टर ने उसे चेक किया । और कहा - ये मर गया है । इस लाश को पोस्टमार्टम के लिये भेज दो ।
जब उसके रिश्तेदार उसे पोस्टमार्टम के लिये लेकर गये । तो पोस्टमार्टम करने वाले डाक्टर ने कहा - तुम लोग पागल हो । जो इसे यहाँ ले आये । ये तो जिंदा है ।
तब फ़िर उस मरीज के रिश्तेदारो ने हँगामा किया । और पुलिस में उस महिला डाक्टर के खिलाफ़ रिपोर्ट लिखाई । अब मैं ऐसे पढे लिखों से पूछूँ - सालो ! तुम्हारे बाप ने पढ लिख कर कौन से झन्डे गाङ दिये । जो तुम लोग पढ लिख कर उन्हें उखाङ दोगे ।
खैर.. मास्टर पागल है जाने दो । सावन को आने दो । पता नहीं उसका क्या होगा ? उसको 1 बडी अजीब सी बीमारी है । उसको पेशाब के साथ थोङा बहुत खून भी आता है । इसलिये उसका इलाज चल रहा है । इन्दौर से । इसलिये पिछ्ले कुछ समय से वो बाबा रामदेव का भक्त बना हुआ है । उसे उम्मीद है कि बाबा रामदेव जी उसका पेशाब के साथ खून निकलना बन्द कर देंगे... हा हा हा ।
**********
सभी चित्र और लेख - श्री विनोद त्रिपाठी । भोपाल । मध्य प्रदेश । ई मेल से ।

बुधवार, जुलाई 20, 2011

दिल्ली दर्शन मेरे साथ - विनोद त्रिपाठी 1

दुनियाँ लगती है बेकार । जब चङती है सतनाम की खुमारी । छापा जब तक न पङे । तब तक हर लडकी है कुमारी । जय हो शंकर भगवान की । जय हो भोलेनाथ की ।
बुल्ला को खुल्लम खुल्ला छापकर तुमने धोती को फ़ाडकर रुमाल कर दिया है । अब तुम राजीव राजा नहीं रहे । अब तुम दिलदार राजा हो गये हो । मैंने कहा था कि - मैं फ़िर आऊँगा ।
आज मैं फ़िर से 100% सच्चा अनुभव लेकर आया हूँ । विश्वास करना । इसमें 1% भी कल्पना नहीं है । आज की बात में न तो कोई तुमसे सवाल है । और न ही पाठकों को कोई सुझाव । ये सच्ची घटना सिर्फ़ 1 अनुभव है । ऐसा अनुभव जब 2 अलग अलग विचारों वाले लोग एक साथ कहीं जाये । तो फ़िर क्या होता है ?
मुझे आज भी अच्छी तरह याद है । मैं दिल्ली 1999 का गया हुआ हूँ । ( इस हिसाब से तो मैं दिल्ली 20वीं सदी का गया हुआ हूँ । जबसे 21वीं सदी शुरु हुई है । मैं दिल्ली जा ही नहीं पाया ) मुझे ये भी याद है कि उस दिन शुक्रवार था । और 25 दिसम्बर था । मैं झूठ नहीं बोल रहा । बेशक अपने अपने कैलेन्डर चेक कर

लो । मुझे उस पी टी मास्टर ने कहा था कि - त्रिपाठी जी ! आपके कोलेज को छुट्टियाँ हैं । और मेरे, मेरी पत्नी और बच्चों के स्कूलों को भी छुट्टियाँ हैं । तो चलो एक साथ कहीं घूमने चलते हैं ।
मैंने कहा - ठीक है चलो । लेकिन कहाँ चलें ?
तब वो बोला - दिल्ली ।
25 दिसम्बर 1999 शुक्रवार को मैं और मेरी पत्नी बिलकुल रेडी थे ( मेरे कोई औलाद नहीं है ) हम लोग पी टी मास्टर का इन्तजार कर रहे थे । तभी वो अपनी पत्नी और बेटियों के साथ आ गया ( उस समय उसकी बेटियाँ बहुत ही छोटी थी ) पी टी मास्टर नीले रंग की जींस और भूरे रंग का कोट पहन कर आया था । उसकी पत्नी पीले रंग के कसे हुये पंजाबी सूट में वो लग रही थी । मैंने सोचा - लगता है । आज तो चटाके पटाके हो जायेंगे ।

इतने में मेरा बाप भी कंगारू की तरह 1 टांग पर कूदता हुआ आया । और मास्टरनी को बार बार नमस्ते बुलाने लगा । मैंने मन में कहा - लूज कैरेक्टर ।
उसके बाद हम लोग कार में बैठे । उस समय मेरे पास मारूती 800 थी ( लेकिन आजकल सिर्फ़ स्कूटर जिन्दाबाद ही है ) जाते जाते मैंने अपने बाप और नौकर " पान्डु " को बोल दिया - खबरदार सालो ! अगर पीछे से खाली मकान का कुछ नाजायज फ़ायदा उठाया तो । मैं वापिस आकर चेक करुँगा ।
इतना कहकर हम लोग निकल लिये । मैं कार चला रहा था । मास्टर मेरी बगल वाली सीट पर था । मेरी पत्नी और मास्टरनी पीछे वाली सीटों पर । दोनों

बच्चियाँ उनकी गोद में थी । सामान पीछे डीगी में था । मैंने अलताफ़ राजा के गाने लगाये हुये थे । 1 - तुम तो ठहरे परदेसी साथ क्या निभाओगे 2 - इशक और प्यार का मजा लीजिये 3 - कर लो प्यार कर लो प्यार कर लो प्यार ।
जब कुछ घन्टे बीत गये । तो मास्टर अचानक बोल पडा - त्रिपाठी जी ! धन्य है मेरा जिगर । जो मैं आपके साथ बैठकर इतनी देर से ये गाने सुन रहा हूँ ।
मैंने शान्त मन से कहा - कोई और गाने लगा लेते हैं ।
तब तपाक से उसने अपने कोट की जेब से कैसेट निकाल कर मुझे दे दी । मैंने लगा दी । पता नहीं कहाँ से उठाकर लाया था । पुरानी राजकपूर की फ़िल्मों के बेकार गाने । मैं बोर हो रहा था । और वो खुश हो रहा था ।

जब दोपहर हुई । मैंने कहा - कहीं खाना खा लेते हैं ।
तब वो बोला - सामने ढाबा है । वहाँ कार रोक लो ।
मैंने कहा - वो तो ड्राइवरों का ढाबा लगता है । किसी अच्छी जगह रूकते हैं ।
तो वो बोला - सब जगह अच्छी ही होती है । यहीं रोक लो ( मेरे हिसाब से उसने जानबूझ कर वहाँ रूकवाया था । वो कंजूस है । हमेशा सस्ता काम ही करता है )
जब हम वहाँ खाना खाने बैठे । तो वो बोला - त्रिपाठी जी ! आर्डर दीजिये क्या खायेंगे आप ?
मैंने मन में कहा - आर्डर तो सा.. ऐसे माँग रहा है जैसे..."
इतने में ढाबे वाला लडका बोला - यहाँ सिर्फ़ दाल ही मिलेगी ।
इससे पहले मैं कुछ कहता । मास्टर बोल पडा - हाँ ले आओ । खैर, फ़िर वहाँ से खाना खाकर चल पडे । दिल्ली

पहुँचते पहुँचते अन्धेरा हो गया था ( सर्दियों मे धुँध के कारण शाम 5 या 6 बजे तक ही अन्धेरा हो गया था ) हम लोग दिल्ली से अनजान ही थे ।
मैंने कहा - अच्छा होटल कहाँ से ढूँढे ?
मास्टर बोला - ढूँढना क्या है । कोई भी चलेगा ।
समय बीत रहा था । मैंने किसी भीड भडके वाले बाजार में कार पार्क की । फ़िर होटल तलाशने लगे । बेकार सा बाजार था । बहुत ही भीड थी । हम लोग दुकानदारों से पूछ रहे थे । वहाँ दुकानों के उपर कमरे बने हुये थे ।
मास्टर बोला - त्रिपाठी जी ! यही रूक जाते हैं ।
मैंने कहा - ये तो आम कमरे हैं । किसी होटल में चलते हैं । वहाँ केबल टी वी भी होगा ।

मास्टर बोला - नहीं नहीं ये ठीक हैं ( मुझे पता था । वो सस्ते के चक्कर में बोल रहा था )
जब कमरा देखा । तो बेकार था । बाथरूम भी साफ़ नहीं था ।
मैंने मास्टर से कहा - ये ठीक नहीं है ।
तब मास्टर बोला - सब ठीक ही है । रात ही तो काटनी है । हमने कौन सा कमरा खरीद के घर ले जाना है । उस समय मैंने उसे मन में कितनी गालियाँ दी । ये सिर्फ़ मैं जानता हूँ । या भगवान ।
खैर कमरा ले लिया किराये पर । हमने वहाँ के आदमी से पूछा - खाने में क्या मिलेगा ?
तो वो साला उल्लू की दुम बोला - खाना नहीं हम देते । सिर्फ़ कमरा देते हैं ।
तब फ़िर हम लोग ( दोनों परिवार ) खाने के लिये किसी होटल की तलाश में निकले । मास्टर रास्ते में पराई औरतों को चोर आँख से देख रहा था । लेकिन मेरा उस दिन मूड ठीक नहीं था । रास्ते में घटिया किस्म के बाजार और दुकानें आ रही थी ।

तभी 1 सस्ता सा होटल नजर आया । मास्टर हम सबको बोला - बस आ जाओ । बन गया काम ।
खैर वहाँ खाना खाया । और वापिस अपने अपने कमरे में आ गये । मेरी पत्नी सो गयी थी । मैं सिगरेट पीते हुए खिडकी से बाहर देख रहा था । सोचा अगर अकेले ( मैं और मेरी पत्नी ) आये होते । तो किसी अच्छे होटल में रहते । जहाँ केबल टीवी होता । मैं आराम से पैग लगाता । फ़िर हम दोनों बढिया खाना खाते । मैंने उस दिन फ़ैसला कर लिया था कि - इस मास्टर के साथ दोबारा कभी भी कहीं भी घूमने नहीं जाऊँगा । इस बार तो मैं फ़ँस गया । मैंने 1 बात वहाँ नोट की । रात के 11 बजने वाले थे । लेकिन फ़िर भी सडकों पर भीड और शोरगुल बहुत था ।

मैंने सोचा । दिसम्बर की रात को इतना शोरगुल और भीड । पता नहीं गर्मियों में कितनी भीड होती होगी ? उस दिन दिल्ली के प्रति मेरे मन में नफ़रत के भाव से बन गये थे । मैं सोने की कोशिश करते हुए, दिल्ली की तुलना अपने मध्य प्रदेश से करने लगा । खास कर भोपाल और लाला लाजपत राय नगर ( जहाँ मैं रहता हूँ ) से ।
सुबह हुई । मास्टर किसी पास की दुकान से चाय ले आया था । मेरी पत्नी ने साथ में लाये हुये बिस्कुट के पैकेट को खोल लिया । मैंने मास्टर को कहा - मैडम जी । एलिना और स्टेफ़ी ( उसकी बेटियों के नाम ) ने चाय पी ली ?
तब मास्टर बोला - हाँ  उन लोगों ने अपने कमरे में ही पी ली थी ।
मैंने मन में सोचा - रात को सा.. ने चटाके पटाके किये होंगे ।
मैंने कहा - मास्टर जी ! नाशते का क्या इरादा है ?

तब वो बोला - नाशता क्या ? नाशता ही नाश्ता है । हम जैम साथ में ले आये हैं । मैं ब्रेड का पैकेट ले आता हूँ । बढिया नाशता करेंगे ।
मैने सीधा कह दिया - मास्टर जी ! आप बच्चों वाली बात मत कीजिये । कहीं चलकर ठीक से नाशता कर लेते हैं ।
खैर मैंने उस हराम के ढक्कन को मना लिया । लेकिन मैं मन में बार बार सोच रहा था कि कहाँ इस ... के चक्कर में फ़ँस गया । हम लोग पूछ्ते पूछते " पराँठे वाली गली " में पहुँच गये । वहाँ सरदार लोगों की दुकानें थी । सिर्फ़ पराँठे की । हम भी बैठ गये 1 जगह । बहुत ही बढिया पराँठे थे । 1 प्लेट में 2 पराँठे थे । साथ में 2 किस्म के अचार और 2 किस्म की चटनी । 22 रुपये प्लेट थी । मास्टर भी नखरे करता हुआ 3 पराँठे खा ही गया ।
उसके बाद हम लोग दिल्ली घूमे । जितना हम घूम सकते थे । हम लाल किला पहुँचे । वहाँ मास्टर अपने बच्चों को देशभक्ति की नकली कहानियाँ सुना रहा था । वहा अंग्रेज भी आये हुये थे ।
मास्टर की छोटी बेटी अपने बाप को पूछती - पापा ये लोग कौन हैं ? ( उसका इशारा अंग्रेजो की तरफ़ था )
तब मास्टर बोला - ये अंग्रेज लोग हैं ।
उसकी बेटी ने फ़िर पूछा - क्या ये लोग यहाँ पर रहते हैं ?
तब मास्टर थोडा गुस्से में बोला - क्या करना है । इनको यहाँ रख कर । बडी मुश्किल से तो निकाले हैं । खैर उसके बाद हम लोग जन्तर मन्तर चले गये । वहाँ भी मास्टर अपनी बेटियों को ग्यान और विग्यान का भाशन देता रहा । फ़िर हम लोग कनाट प्लेस जैसी जगहों पर भी हो आये । बडी शानदार जगह थी ।

मैंने सोचा । जिस जगह हमने कमरा किराये पर लिया है । वो जगह तो बडी थर्ड क्लास है । लेकिन ये जगह तो फ़र्स्ट क्लास है । यहाँ तो बहुत ही अमीर लोग रहते होंगे । मैंने बडे शौक से वहाँ की शानदार बिल्डिंगे देखी । और खुश हुआ । लेकिन मास्टर वहाँ खुश नजर नहीं आ रहा था ( बेचारा पैदायशी सस्ती सोच वाला आदमी है )
दुपहर भी ढल चली थी । मैंने कहा - मास्टर जी ! क्या इरादा है ? खाना कहाँ खाना है ।
तब वो बोला - खाना क्या ? सुबह कर तो लिया था ।
मैंने कहा - सुबह किया था । उसके बाद पैदल भी कितना घूमे । अब शाम के 4 बजने वाले हैं । कोई छोटी मोटी चीज ही खा लो ।

तो मास्टर बेमन से चल पडा । इस बार मुझे मौका मिल गया । मैं उसे किसी अच्छे से रेस्टोरेन्ट में ले गया । वह बडा डरते डरते घुस रहा था । वहाँ मैंने अपनी मन पसन्द चीज का आर्डर दिया ( मैं बाजारी खाना वैसे तो कम ही खाता हूँ । लेकिन मुझे मद्रासी डोसा बहुत पसन्द है ) लेकिन उस ढक्कन ने वही काम किया । उसने अपने लिये ब्रेड सेन्डविच ही मंगवाये । उसके बाद हम वापिस कमरे में आ गये । हम लोग थक चुके थे । मैंने जब देखा कि मास्टर और उसकी पत्नी अपने कमरे में आराम कर रहे हैं । तो मैं चुपचाप जाकर किसी पास की दुकान से शराब की छोटी बोतल ले आया । साथ में नमकीन का छोटा पैकेट । मैंने आराम से बैठ कर शराब पी ( मेरी पत्नी बेचारी उस समय आराम कर रही थी ) मैं शराब पीते हुए सोच रहा था कि हमारे मध्य प्रदेश में यहाँ के मुकाबले कही अधिक शान्ती है । भोपाल में कितने ही ताल हैं । घाट हैं । खास कर हमारा " लाल लाजपत राय नगर " बिलकुल 1 कोने में होने के कारण वहाँ सन्नाटा और शान्ती है ।
कृमशः

दिल्ली दर्शन मेरे साथ - विनोद त्रिपाठी 2

मैंने 1 बात और भी नोट की । दिल्ली में 1 तरफ़ तो बेहद बाजारु माहौल है । और दुसरी तरफ़ कुछ जगह ऐसी भी हैं । जो बहुत शानदार और महँगी है । जहाँ बहुत ही अमीर लोग रहते हैं । असली महा सेठ । आज के जमाने के ।
खैर मैंने आराम से शराब खत्म की । शराब मैंने जानबूझ कर मास्टर और उसकी पत्नी के सामने नहीं पी । क्युँ कि वो दोनो पति पत्नी शराब विरोधी हैं । उसकी पत्नी जवाहर लाल नेहरू की भक्त है । कहती है - शराब के अलावा दुनियाँ में और कोई अवगुण नहीं ।
खैर, मास्टर रात को 8 और 9 के बीच फ़िर आ गया । मैंने कहा - मास्टर जी ! खाना कब खाने चलें ?
तो मास्टर बोला - खाना खा तो लिया था ।
मैंने कहा - कब ?

तो वो बोला - शाम को ।
मैंने कहा - शाम को 4 बजे खाया था । अब रात के 9 बजने वाले हैं ।
उसने कहा - मैंने नहीं खाना ।
मैंने कहा - भाई साहेब ! लेकिन मैंने जरुर खाना है । मैंने कहा - चलो अब चलते हैं आओ ।
मास्टर बोला - मैं साथ चल पडता हूँ । मेरी पत्नी और बेटियाँ नहीं जायेंगी । उन्हें भूख नहीं है । वो लोग आराम कर रहे हैं ।
तो फ़िर हम 3 लोग चल पडे ( मैं मेरी पत्नी और मास्टर ) लेकिन मास्टर लेकर फ़िर वहीं गया । सस्ते होटल में । खैर मैंने और मेरी पत्नी ने खाना खाया । मास्टर वहाँ आते जाते ग्राहकों को देखता रहा । फ़िर हम वापिस अपने अपने कमरों में आ गये । मेरी पत्नी आते ही सो गयी ।
मैंने सिगरेट जला ली । और खिडकी से बाहर देखने लगा । मैंने सोचा । मास्टर चटाके पटाके कर रहा होगा । उस

रात फ़िर सडक पर बहुत भीड थी । जो मुझे बिल्कुल भी अच्छी नहीं लग रही थी । मैं अपने घर के पास लाला लाजपत राय के नाम पर बने सरकारी पार्क के बारे में सोचने लगा । मैं सोच रहा था कि छोटे शहरों में बने बडे सरकारी पार्कों का अलग ही महत्व है । फ़िर मैं कल्पना करने लगा कि बढिया सरकारी पार्क के बाहर चाट पकोडी की रेहङी पर 2 सुन्दर और तन्दुरस्त लडकियाँ ( कोलेज में पढने वाली ) चाट खा रही हों । पास में ही किसी पान की दुकान पर मैं खडा सिगरेट पी रहा हूँ । दुकान पर पडे रेडियो पर 1991 में बनी फ़िल्म " फ़ूल और कांटे " का गाना चल रहा हो - ये दिल तेरे लिये ही मचलता है...तुम ही हो जिस के लिये दिल मरता है ।
फ़िर मैं नगर पालिका के बनाये हुए सरकारी पार्कों की कल्पना करते करते सो गया ।
अगले दिन फ़िर वही पराँठे वाली गली में नाशता किया । फ़िर हम लोग घूमने निकले । घूमते घूमते हम लोग दिल्ली के मशहूर बाजार पालिका बाजार चले गये । वहाँ मास्टर दुकानो में घुस कर चीज उठाता । और कीमत पूछने पर सामान नीचे रख देता । वहाँ फ़ालतू के सवाल जवाब कर रहा था । दुकानदारों को पूछ रहा था कि - इन चीजों का इतना रेट क्युँ है ? किस हिसाब से है ?
मैंने मन में कहा - तूने लेना देना कुछ है नही । बस ऐसे ही ...।
फ़िर हम वहाँ से निकल कर दुपहर को कुतुबमीनार देखने चले गये । वहाँ अंग्रेज लोग भी आये हुए थे । जिन्हें देख कर मास्टर का मूड खराब हो गया था ( शायद ) उस जगह आसपास और भी पुरानी बडी इमारतें बनी हुई हैं । मैंने वैसे ही कह दिया - देखो मास्टर जी क्या शानदार बिल्डिंग है । बेशक पुरानी है । लेकिन अभी भी इसकी शान है । बनाने वाले ने कितनी कलाकारी और मेहनत से बनाई होगी ।
वो बोला - होगी शानदार । उससे हमें क्या । हमने कौन सा इसे खरीदना है ।
मेरे दिल में तो आया कि ... को 1... लगा दूँ । लेकिन परवीन बाबी ( मास्टर की पत्नी ) के नाराज होने का खतरा था ।
खैर, फ़िर हमने किसी से पूछा कि - भई हम लोग यहाँ नये हैं । क्या कोई और अच्छी जगह है । घूमने के लिये ।
तो किसी ने कहा कि - फ़लाँ जगह पर 1 बहुत बडा " लोटस टेम्पल " बना है ।
मेरी पत्नी बेचारी बिलकुल ही साधारण और कम पढी लिखी है । टेम्पल का नाम सुनते ही कहने लगी - वहाँ चलते हैं ।

हम सब लोग पहुँच गये । लोटस टेम्पल । वहाँ 1 बहुत बडा खाली हाल कमरा था । बस । आसपास पार्क जैसी जगह थी । जब हम लोग हाल कमरे में पहुँचे । तो वहाँ पर कुछ नहीं था । बस अजीब सा साज सजावट का सामान रखा हुआ था । पता नहीं ये मन्दिर शायद जैन धर्म के लोगों का था । या किसी और का । 1 साला चूसे हुए आम जैसा पहरेदार सबको बोल रहा था - एक्सक्यूज मी जेन्टलमैन ! साईलेंस प्लीज । शान्ति ।
मैंने मन में कहा - शान्ति की नहीं । क्रान्ति की जरुरत है ।
फ़िर हम सब लोग उस बडे से कमरे से निकल कर बाहर पार्क में आ गये । मैं उस पार्क को देखकर, उस पार्क की तुलना लाला लाजपत राय के नाम पर बने हमारे घर के पास वाले पार्क के साथ कर रहा था । खैर, वहाँ पर कुछ भारतीय लोग वहाँ आये अंग्रेज लोगो के साथ

मिन्नत वगैरह करके उनके साथ अपनी फ़ोटो खिंचवा रहे थे । तब मास्टर और मास्टरनी भी मौके पर चौका लगा कर अपनी और अपने बच्चों की तसवीर अंग्रेज लोगों के साथ खिंचवाने में कामयाब हो गये । फ़ोटो खिंचवाते समय मास्टरनी गर्व से अपना सीना फ़ुलाये खडी थी ।
मैंने मन में कहा - ये हुई न बात ।
तब मास्टर बोला - त्रिपाठी जी ! आप भी आ जाईये ।
मैंने कहा - कोई बात नहीं । मैं जरा पेशाब कर के आया ।
मैंने जाकर गुस्से में पेशाब कर दिया । तुम युँ समझो कि बस बाथरुम को बरबाद कर दिया । मैं ये भी सोच रहा था कि मास्टर कल तो अपनी बेटी को बोल रहा था कि - इन अंग्रेजों को बडी मुशकिल से बाहर निकाला था । लेकिन आज सा.. ये खुद अपने परिवार सहित उन अंग्रेजो की बगल.. में घुसकर फ़ोटो खिंचवा रहा है ।

फ़िर मैं वापिस पार्क में आ गया । वहाँ किसी से पता लगा कि ये शायद कोई प्राइवेट संस्था की जगह है । मैंने सोचा कि दिल्ली में जगह की कमी है । इतने एकड जमीन पर ये फ़ालतू सा कमरा बनाकर और आसपास घास फ़ूस लगाकर कौन सा कमाल कर दिया । सरकार भी जो काम रोकना है । उसको रोकती नहीं । बस इधर थूक लगा देती है । और उधर तेल लगा देती है ।
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ताँ हमारा । रहने को घर नहीं फ़िर भी सारा जहाँ हमारा ।
लानत है । उसके बाद मास्टर बोला - बच्चों को अप्पू घर दिखाना है ।
मैंने कहा - चलो ।
हम जब अप्पू घर पहुँचे । तो अन्धेरा हो चुका था ।
मास्टर बोला - त्रिपाठी जी ! कौन सा झूला झूलना है ?

मैंने कहा - मेरा ब्लड प्रेशर हाई रहता है । मैं नही झूलूँगा ।
मैं और मेरी पत्नी काफ़ी पीने के लिये साइड पर किसी बेंच पर बैठ गये । मास्टर और मास्टरनी में थोडा सा झगडा भी होना शुरु हो गया । उनके बच्चे किसी झूले पर बैठने की जिद कर रहे थे । लेकिन उस झूले के टिकट की कीमत ज्यादा थी । इसलिये उनमें बहस चल रही थी ।
मास्टरनी बोल रही थी - मैं 1 छोटे बच्चे के लिये इतना महँगा टिकट नही खरीदूँगी ।
मास्टर की छोटी बेटी लगातार रोये जा रही थी । मैंने मन में कहा कि - जब खर्चा करने की औकात नहीं । तो खर्चे वाली जगह पर क्यों..?
खैर, मैंने वहाँ पर 1 बात नोट की । वहाँ अप्पू घर में बहुत ही सुन्दर सुन्दर लडकियाँ घूम रही थी । प्रेमी जोडे भी बहुत थे । समझ नहीं आ रहा था कि किसको देखूँ । और किसको न देखूँ । कई प्रेमी जोडे तो सिर्फ़ 16, 17 या 18 साल तक के भी थे ।
राजीव राजा ! विश्वास करो । मैंने उनको गन्दी नजरों से नहीं देखा । मैं तो हैरान था कि इतने सुन्दर सुन्दर चेहरे एक साथ । लडकियाँ बहुत सुन्दर, गोरी, चिकनी और मुलायम किस्म की थी । लेकिन जो साथ में लडके थे । वो सब साले " कमर हिलाकर डिस्को और पप्पी लेकर खिसको " स्टायल के ही थे ।
मैं उन लडको की तुलना अपने शहर के लडके " जयकिशोर " से करने लगा । जयकिशोर नाम का लडका उस अखाडे में कसरत करने आता है । जिस अखाडे का मालिक मेरा दोस्त है । जयकिशोर 20 साल का है । बिलकुल ही साधारण घर से है । लेकिन उसके विचार साफ़ और नेक हैं ।
मैं सोच रहा था कि कहाँ हमारा जयकिशोर और कहाँ - ये साले टमाटर के बीज । लेकिन मुझे 1 हैरानी थी कि इन

लडकियों के माँ बाप इतनी ठंड में इतनी रात को इन्हें घर से दूर दोस्तों और सहेलियों के साथ घूम कर आने की इजाजत कैसे दे देते हैं ।
राजीव राजा ! वहाँ पर ( अप्पू घर में ) छोटे छोटे पार्क टायप स्थानों पर बडे बडे पेड भी लगे हुये हैं । और उन दिनों धुँध बहुत थी । मैं सोच रहा था कि कहीं सा.. ये दिल्ली के हरा.. लडके किसी लडकी के साथ धक्का न कर दें । लेकिन मुझे शक था कि जिस तरह लडकियाँ इनके साथ चिपक चिपक कर चल रही हैं । ये उनकी पप्पी पुप्पी जरुर ले लेते होंगे । मैं उठकर घुमने के बहाने इधर उधर टहलने लगा । मेरा इरादा था कि किसी कच्चे प्रेमी जोडे को रंगे हाथों चूमाचाटी करते हुये पकड लूँ । उसके बाद लडकी को तो जाने के लिये कह दूँगा । लेकिन उस लडकों को राशन पर भाशन दे डालूँगा ।
मैं कहूँगा - बेटा ! तुम्हारे घर पर तेरा पापा बैठा फ़ीकी चाय पी रहा होगा । और तुम यहाँ आईसक्रीम चाट रहे हो । लेकिन ऐसा हो नहीं सका ।

मास्टर आकर बोलने लगा - चलो त्रिपाठी जी ! अब लेट हो रहे हैं । सुबह जल्दी उठना है ।
मैंने कहा - चलो ।
फ़िर हम सब कार में बैठे । और वापिस अपने कमरे की तरफ़ आने लगे । इस बार मास्टर खुद ही बोल पडा - त्रिपाठी जी ! खाना रास्ते में खाकर फ़िर कमरों की तरफ़ चलते हैं । नहीं तो पहले कमरे में जायेगे । फ़िर वापिस खाना खाने आयेंगे । इससे टाइम फ़िजूल जायेगा ।
मैंने कहा - ठीक है ।
फ़िर हम खाना खाकर अपने अपने कमरों में आ गये । मेरी पत्नी बेचारी थकी हुई होने के कारण आते ही सो गयी । मैं सोच रहा था कि मास्टर पता नहीं आज रात चटाके पटाके करेगा या नहीं ?
क्युँ कि मास्टर और मास्टरनी में झगडा हो गया था ( अप्पू घर में ) लेकिन मैं आज खुश था । क्युँ कि अगली

सुबह हमारी भोपाल वापिस रवानगी थी । बस अगली सुबह हम लोग जल्दी उठकर बिना नाशता किये सिर्फ़ चाय पीकर वापिस भोपाल को हो लिये । मैंने फ़िर वापिसी पर अपनी पसन्द के ही गाने लगाये । नाशता हमने रास्ते में कर लिया ( हल्का फ़ुल्का ) और दुपहर का खाना इस बार मेरा कहना मानते हुये सबने किसी अच्छे रेस्टोरेन्ट में ही किया । भोपाल पहुँचते पहुँचते अन्धेरा हो चुका था ।
मास्टर ने कहा - हम रात का खाना रास्ते में पैक करवा लेते हैं । मैंने कहा - तुम लोग पैक करवा लो । हमारे यहाँ तो हमारा " पान्डु " है ।
मास्टर बोला - ठीक है ।
मैंने कहा - मैं तुम्हे अपने दोस्त के ढाबे से खाना पैक करवा देता हूँ ।
मेरे इतना कहने पर वो सा.. हरा.. का ढक्कन मास्टर मेरे को समझाने के स्टायल से बोला - त्रिपाठी जी ! ये साले बिजनेसमैन किसी के दोस्त वोस्त नहीं होते । आज तक कभी कोई बिजनेस मैन किसी का सच्चा दोस्त साबित नहीं हुआ ।
मैं परवीन बाबी ( मास्टर जी की खूबसूरत पत्नी ) के कारण चुप रहा । फ़िर वही हुआ । जो होना था । मास्टर ने किसी सस्ती जगह से सांडे के तेल में बनी दाल फ़्राई और रोटी पैक करवा ली । फ़िर मैंने मास्टर और उसके परिवार को उनके घर छोडा । और अपने घर आ गया । मेरे घर पर मेरा बाप और नौकर पान्डु बैठे आग सेक रहे थे ( ठंड से बचने के लिये )
मैंने अपने बापू से पूछा - हमारी गैर-हाजरी में सब ठीक ठाक रहा ?
मेरा बाप मेरे को 1 आँख बन्द करके बोला - बहुत बढिया ।
मैंने सोचा । मेरी गैर-हाजरी में इन सालों ने कहीं किसी के चटाके पटाके तो नहीं कर दिये ?
खैर फ़िर हम सब लोग खाना खाकर सो गये । अगले दिन मैं आराम से सोकर उठा । मुझे मेरी कालोनी का शान्त वातावरण और सर्दियों की सुनहरी धूप बहुत सुकून दे रही थी । मैं उस दिन शाम को 4 बजे से पहले पहले अपने दोस्त " बटुकनाथ लल्लन प्रसाद " के अखाडे में पहुँच गया । उसका अखाडा मेरे घर से तो दूर है । लेकिन शहरी

भीड भाड से थोडा अलग थलग ही है । वहाँ बैठकर मैंने अपने दोस्त ( अखाडे के मालिक ) के साथ बैठकर खालिस दूध की चाय पी । मेरे दोस्त ने अखाडे के पास ही भैंसे भी रखी हुई हैं । चाय के साथ नारियल के लड्डू भी खाये । अखाडे के आसपास का वातावरण बहुत अच्छा है ।
खुले खेत । लम्बे लम्बे पेडों की भरमार । गरीब । साधारण लेकिन अच्छे विचारों वाले भारतीय नौजवानों को वहाँ देसी कसरत करते हुये देखना मुझे बहुत अच्छा लगा । मैं वहाँ बैठा सोच रहा था कि इस 5 तत्व के पुतले ( जो आत्मा का वस्त्र हैं ) ने 1 दिन मिट्टी में ही मिट्टी हो जाना है । लेकिन सामने कसरत कर रहे नौजवान पहलवान जिन्दा रहते हुये ही कैसे मिट्टी से मिट्टी हो रहे हैं । वहाँ थोडी देर बैठने के बाद मैं अपने स्कूटर पर वहाँ से बाजार को चल दिया । रास्ते में पान की दुकान पर मुझे मेरा बाप सिगरेट पीता हुआ दिख गया । मैंने उसके पास जाकर स्कूटर रोक दिया । मेरा बाप कूदकर मेरे स्कूटर के पीछे बैठ गया । फ़िर मैंने अपना स्कूटर दौडा दिया । सब्जी मन्डी की तरफ़ ।
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...