सोमवार, नवंबर 21, 2011

बृह्म रहस्य के चार महावाक्य

कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद ( शुकरहस्योपनिषद ) में महर्षि व्यास के आग्रह पर भगवान शिव उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश " बृह्म रहस्य " के रूप में देते हैं । वे चार महावाक्य -
1 ॐ प्रज्ञानं बृह्म 2 ॐ अहं बृह्माऽस्मि 3 ॐ तत्त्वमसि और 4 ॐ अयमात्मा बृह्म हैं ।
1 ॐ प्रज्ञानं बृह्म - इस महा वाक्य का अर्थ है - प्रकट ज्ञान बृह्म है । वह ज्ञान स्वरूप बृह्म जानने योग्य है । और ज्ञान गम्यता से परे भी है । वह विशुद्ध रूप । बुद्धि रूप । मुक्त रूप । और अविनाशी रूप है । वही सत्य । ज्ञान । और सच्चिदानन्द स्वरूप । ध्यान करने योग्य है । उस महा तेजस्वी । देव का ध्यान करके ही । हम मोक्ष को । प्राप्त कर सकते हैं । वह परमात्मा । सभी प्राणियों में । जीव रूप में । विद्यमान है । वह सर्वत्र । अखण्ड विग्रह । रूप है । वह हमारे । चित और अहंकार पर । सदैव नियन्त्रण करने वाला है । जिसके द्वारा । प्राणी देखता । सुनता । सूंघता । बोलता । और स्वाद अस्वाद । का अनुभव करता है । वह प्रज्ञान है । वह सभी में । समाया हुआ है । वही बृह्म है ।
2 ॐ अहं बृह्माऽस्मि । इस महा वाक्य का अर्थ है - मैं बृह्म हूँ । यहाँ अस्मि शब्द से । बृह्म और जीव की । एकता का । बोध होता है । जब जीव । परमात्मा का । अनुभव कर लेता है । तब वह । उसी का रूप । हो जाता है । दोनों के मध्य का । द्वैत भाव । नष्ट हो जाता है । उसी समय । वह - अहं बृह्मास्मि । कह उठता है ।
3 ॐ तत्त्वमसि । इस महा वाक्य का अर्थ है - वह बृह्म तुम्हीं हो । सृष्टि के । जन्म से पूर्व । द्वैत के । अस्तित्त्व से रहित । नाम और रूप से रहित । एक मात्र । सत्य स्वरूप । अद्वितीय - बृह्म । ही था । वही बृह्म । आज भी । विद्यमान है । उसी बृह्म को । तत्त्वमसि । कहा गया है । वह शरीर । और इन्द्रियों में । रहते हुए भी । उनसे परे है । आत्मा में । उसका अंश मात्र है । उसी से । उसका अनुभव होता है । किन्तु वह अंश । परमात्मा नहीं है । वह उससे दूर है । वह । सम्पूर्ण जगत में । प्रतिभासित होते हुए भी । उससे दूर है ।
4 ॐ अयमात्मा बृह्म । इस महावाक्य का अर्थ है - यह आत्मा बृह्म है । उस स्व प्रकाशित परोक्ष ( प्रत्यक्ष शरीर से परे ) तत्त्व को । अयं । पद के द्वारा । प्रतिपादित किया गया है । अहंकार से लेकर । शरीर तक को । जीवित रखने वाली । अप्रत्यक्ष शक्ति ही । आत्मा है । वह आत्मा ही । परबृह्म के रूप में । समस्त प्राणियों में । विद्यमान है । सम्पूर्ण चर अचर । जगत में । तत्त्व रूप में । वह संव्याप्त है । वही बृह्म है । वही । आत्मतत्त्व के । रूप में । स्वयं प्रकाशित । आत्मतत्त्व  है ।
अन्त में भगवान शिव शुकदेव से कहते हैं - हे शुकदेव ! इस सच्चिदानन्द स्वरूप । बृह्म को । जो । तप । और ध्यान द्वारा । प्राप्त करता है । वह जीवन मरण के । बन्धन से । मुक्त हो जाता है ।
भगवान शिव के उपदेश को सुनकर मुनि शुकदेव सम्पूर्ण जगत के स्वरूप परमेश्वर में तन्मय होकर विरक्त हो गये । उन्होंने भगवान को प्रणाम किया । और सम्पूर्ण प्ररिग्रह का त्याग करके तपोवन की ओर चले गये ।

इसका ज्ञान मेरे लिए वास्तव में विचित्र है

विचित्र - व्याघ्रीव तिष्ठति जरा परितर्जयन्ती । रोगाश्च शत्रव इव परिहरन्ति देहम ।
आयुः परिस्रवति भिन्नघटादिवाम्भो । लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम ।
वृद्धावस्था बाघिन की तरह गुर्राती सी सामने खड़ी है । शत्रुओं की भांति रोग शरीर पर प्रहार किये जा रहे हैं । दरार वाले फूटे घड़े से चू रहे पानी की तरह आयु क्षरण हो रहा है । फिर भी यह संसार ( जनसमूह ) अहितकर कार्यों में संलग्न रहता है । इस तथ्य का ज्ञान मेरे लिए वास्तव में विचित्र है ।
साधन पंचकम -
वेदो नित्यमधीयताम तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां । तेनेशस्य विधीयतामपचितिकाम्ये मतिस्त्यज्यताम ।
पापौघः परिधूयतां भवसुखे दोषोनुसंधीयतां । आत्मेच्छा व्यवसीयतां निज गृहात्तूर्णं विनिर्गम्यताम ।
वेदों का नियमित अध्ययन करें । उनमें कहे गए कर्मों का पालन करें । उस परम प्रभु के नियमों का पालन करें । व्यर्थ के कर्मों में बुद्धि को न लगायें । समग्र पापों को जला दें । इस संसार के सुखों में छिपे हुए दुखों को देखें । आत्म ज्ञान के लिए प्रयत्नशील रहें । अपने घर की आसक्ति को शीघ्र त्याग दें ।
संगः सत्सु विधीयतां भगवतो भक्ति: दृढाऽऽधीयतां । शान्त्यादिः परिचीयतां दृणतरं कर्माशु संत्यज्यताम ।
सद्विद्वानुपसृप्यतां प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां । बृह्मैकाक्षरमर्थ्यतां श्रुतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम ।
सज्जनों का साथ करें । प्रभु में भक्ति को दृण करें । शांति आदि गुणों का सेवन करें । कठोर कर्मों का परित्याग करें । सत्य को जानने वाले विद्वानों की शरण लें । प्रतिदिन उनकी चरण पादुकाओं की पूजा करें । बृह्म के एक अक्षर वाले नाम ॐ के अर्थ पर विचार करें । उपनिषदों के महावाक्यों को सुनें ।
वाक्यार्थश्च विचार्यतां श्रुतिशिरःपक्षः समाश्रीयतां । दुस्तर्कात् सुविरम्यतां श्रुतिमतस्तर्कोऽनुसंधीयताम ।
बृह्मस्मीति विभाव्यतामहरहर्गर्वः परित्यज्यताम । देहेऽहंमति रुझ्यतां बुधजनैर्वादः परित्यज्यताम ।
वाक्यों के अर्थ पर विचार करें । श्रुति के प्रधान पक्ष का अनुसरण करें । कुतर्कों से दूर रहें । श्रुति पक्ष के तर्कों का विश्लेषण करें । मैं बृह्म हूँ । ऐसा विचार करते हुए मैं रुपी अभिमान का त्याग करें । मैं शरीर हूँ । इस भाव का त्याग करें । बुद्धिमानों से वाद विवाद न करें ।
क्षुद्व्याधिश्च चिकित्स्यतां प्रतिदिनं भिक्षौषधं भुज्यतां । स्वाद्वन्नं न तु याच्यतां विधिवशात प्राप्तेन संतुष्यताम । शीतोष्णादि विषह्यतां न तु वृथा वाक्यं समुच्चार्यतां । औदासीन्यमभीप्स्यतां जनकृपानैष्ठुर्यमुत्सृज्यताम ।
भूख को रोग समझते हुए प्रतिदिन भिक्षा रूपी औषधि का सेवन करें । स्वाद के लिए अन्न की याचना न करें । भाग्यवश जो भी प्राप्त हो । उसमें ही संतुष्ट रहें । सर्दी गर्मी आदि विषमताओं को सहन करें । व्यर्थ वाक्य न बोलें । निरपेक्षता की इच्छा करें । लोगों की कृपा और निष्ठुरता से दूर रहें ।
एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयतां । पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्वाधितं दृश्यताम ।
प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरैः श्लिश्यतां । प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परबृह्मात्मना स्थीयताम
एकांत के सुख का सेवन करें । परबृह्म में चित्त को लगायें । परबृह्म की खोज करें । इस विश्व को उससे व्याप्त देखें । पूर्व कर्मों का नाश करें । मानसिक बल से भविष्य में आने वाले कर्मों का आलिंगन करें । प्रारब्ध का यहाँ ही भोग करके परबृह्म में स्थित हो जाएँ ।

यह विश्व दर्पण में दिखाई देने वाली नगरी के समान है

विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतम । पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यदा निद्रया ।
यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयम । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
यह विश्व । दर्पण में दिखाई देने वाली । नगरी के समान है ( अवास्तविक है )  स्वयं के भीतर है । मायावश । आत्मा ही । बाहर प्रकट हुआ सा । दिखता है । जैसे नींद में । अपने अन्दर देखा गया स्वपन । बाहर उत्पन्न हुआ सा । दिखाई देता है । जो आत्म साक्षात्कार के समय । यह ज्ञान देते हैं कि । आत्मा एक है । उन श्रीगुरु रूपी श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
बीजस्यान्तरिवान्कुरो जगदिदं प्राङनिर्विकल्पं । पुनर्मायाकल्पितदेशकालकलनावैचित्र्यचित्रीकृतम ।
मायावीव विजॄम्भयत्यपि महायोगोव यः स्वेच्छया । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
बीज के अन्दर स्थित । अंकुर की तरह । पूर्व में निर्विकल्प इस जगत । जो बाद में पुनः माया से भांति  भांति के स्थान । समय । विकारों से चित्रित किया हुआ है । को जो । किसी मायावी जैसे । महायोग से । स्वेच्छा से उदघाटित करते हैं । उन श्रीगुरु रूपी । श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते । साक्षात्तत्त्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान ।
यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
 जिनकी प्रेरणा से । सत्य । आत्म तत्त्व । और उसके असत्य । कल्पित अर्थ का । ज्ञान हो जाता है । जो अपने । आश्रितों को । वेदों में कहे हुए । तत्त्वमसि । का प्रत्यक्ष ज्ञान कराते हैं । जिनके साक्षात्कार के बिना । इस भव सागर से । पार पाना । संभव नहीं होता है । उन श्रीगुरु रूपी  श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
नानाच्छिद्रघटोदरस्तिथमहादीपप्रभाभास्वरं । ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरणद्वारा बहिः स्पन्दते ।
जानामीति तमेव भांतमनुभात्येतत्समस्तं जगत । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
अनेक छिद्रों वाले । घड़े में रक्खे हुए । बड़े दीपक के । प्रकाश के समान । जो ज्ञान । आँख आदि । इन्द्रियों द्वारा । बाहर स्पंदित होता है । जिनकी कृपा से । मैं यह जानता हूँ । कि उस प्रकाश से ही । यह सारा संसार । प्रकाशित होता है । उन श्रीगुरु रूपी । श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः । स्त्रीबालांधजड़ोपमास्त्वहमिति भ्रान्ता भृशं वादिनः ।
मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोहसंहारिण॓ । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
स्त्रियों । बच्चों । अंधों । और मूढ के समान । देह । प्राण । इन्द्रियों । चलायमान बुद्धि । और शून्य को । मैं यह ही हूँ । बोलने वाले मोहित हैं । जो माया की शक्ति के । खेल से निर्मित । इस महान व्याकुलता का । अंत करने वाले हैं । उन श्रीगुरु रूपी । श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
राहुग्रस्तदिवाकरेंदुसदृशो मायासमाच्छादनात । संमात्रः करणोपसंहरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान ।
प्रागस्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
राहु से गृसित । सूर्य और चन्द्र के समान । माया से । सब प्रकार से ढँका होने के कारण । कारणों के हट जाने पर । अजन्मा । सोया हुआ पुरुष । प्रकट हो जाता है । ज्ञान देते समय । जो यह । पहचान करा देते हैं कि । पूर्व में सोये हुए । यह तुम ही थे । उन श्रीगुरु रूपी । श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि । व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
बचपन आदि । शारीरिक अवस्थाओं । जागृत आदि । मानसिक अवस्थाओं । और अन्य । सभी अवस्थाओं में विद्यमान । और उनसे अलग । सदा । मैं यह हूँ । की स्फुरणा करने वाले । अपने आत्मा को । स्मरण करने पर । जो प्रसन्नता । एवं सुन्दरता से । प्रकट कर देते हैं । उन श्रीगुरु रूपी । श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसम्बन्धतः । शिष्याचार्यतया तथैव पितृपुत्राद्यात्मना भेदतः ।
स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिभ्रामितः । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
स्वयं के । विभिन्न रूपों में । जो विश्व को । कार्य और कारण सम्बन्ध से । अपने और स्वामी के सम्बन्ध से । गुरु और शिष्य सम्बन्ध से । और पिता एवं पुत्र आदि के सम्बन्ध से । देखता है । स्वपन और जागृति में । जो यह पुरुष । जिनकी माया द्वारा । घुमाया जाता सा लगता है । उन श्रीगुरु रूपी । श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
भूरम्भांस्यनलोऽनिलोऽम्बरमहर्नाथो हिमांशुः पुमान । इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम ।
नान्यत्किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभोस्तस्मै । श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
जो भी । इस स्थिर और । गतिशील जगत में । दिखाई देता है । वह जिसके । भूमि । जल । अग्नि । वायु । आकाश । सूर्य । चन्द्र । और पुरुष आदि । आठ रूपों में से है । विचार करने पर । जिससे परे । कुछ और । विद्यमान नहीं है । सर्वव्यापक । उन श्रीगुरु रूपी । श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
सर्वात्मत्वमिति स्फुटिकृतमिदं यस्मादमुष्मिन स्तवे । तेनास्य श्रवणात्तदर्थमननाद्धयानाच्च संकीर्तनात ।
सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः । सिद्ध्येत्तत्पुनरष्टधा परिणतम चैश्वर्यमव्याहतम ।
सबके आत्मा । आप ही हैं । जिनकी स्तुति से । यह ज्ञान हो जाता है । जिनके बारे में सुनने से । उनके अर्थ पर । विचार करने से । ध्यान और भजन करने से । सबके आत्मारूप आप । समस्त विभूतियों सहित । ईश्वर स्वयं । प्रकट हो जाते हैं । और अपने अप्रतिहत ( जिसको रोका न जा सके ) ऐश्वर्य से । जो पुनः । आठ रूपों में । प्रकट हो जाते हैं । उन श्रीगुरु रूपी । श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।

वल्लभाचार्य कृत चतुःश्लोकी

सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो बृजाधिपः । स्वस्यायमेव धर्मो हि नान्यः क्वापि कदाचन ।
सभी समय । सब प्रकार से । बृज के राजा श्रीकृष्ण का ही स्मरण करना चाहिए । केवल यह ही धर्म है । इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं ।
एवं सदा स्वकर्तव्यं स्वयमेव करिष्यति । प्रभुः सर्व समर्थो हि ततो निश्चिन्ततां बृजेत ।
इस प्रकार अपने कर्तव्यों का हमेशा पालन करते रहना चाहिए । प्रभु सर्व समर्थ हैं । इसको ध्यान रखते हुए निश्चिन्तता पूर्वक रहें ।
यदि श्रीगोकुलाधीशो धृतः सर्वात्मना हृदि । ततः किमपरं ब्रूहि लोकिकैर्वैदिकैरपि ।
यदि तुमने सबके आत्मस्वरुप गोकुल के राजा श्रीकृष्ण को अपने ह्रदय में धारण किया हुआ है । फिर क्या उससे बढ़कर कोई और सांसारिक और वैदिक कार्य है ।
अतः सर्वात्मना शश्ववतगोकुलेश्वर पादयोः । स्मरणं भजनं चापि न त्याज्यमिति मे मतिः ।  इति श्री वल्लभाचार्य कृत चतुःश्लोकी सम्पूर्णा ।
अतः सबके आत्मस्वरुप गोकुल के शाश्वत ईश्वर श्रीकृष्ण के चरणों का स्मरण और भजन कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए । ऐसा मेरा ( वल्लभाचार्य का ) विचार है । इस प्रकार श्री वल्लभाचार्य कृत चतुःश्लोकी पूर्ण हुआ ।
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