सोमवार, नवंबर 21, 2011

यह विश्व दर्पण में दिखाई देने वाली नगरी के समान है

विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतम । पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यदा निद्रया ।
यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयम । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
यह विश्व । दर्पण में दिखाई देने वाली । नगरी के समान है ( अवास्तविक है )  स्वयं के भीतर है । मायावश । आत्मा ही । बाहर प्रकट हुआ सा । दिखता है । जैसे नींद में । अपने अन्दर देखा गया स्वपन । बाहर उत्पन्न हुआ सा । दिखाई देता है । जो आत्म साक्षात्कार के समय । यह ज्ञान देते हैं कि । आत्मा एक है । उन श्रीगुरु रूपी श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
बीजस्यान्तरिवान्कुरो जगदिदं प्राङनिर्विकल्पं । पुनर्मायाकल्पितदेशकालकलनावैचित्र्यचित्रीकृतम ।
मायावीव विजॄम्भयत्यपि महायोगोव यः स्वेच्छया । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
बीज के अन्दर स्थित । अंकुर की तरह । पूर्व में निर्विकल्प इस जगत । जो बाद में पुनः माया से भांति  भांति के स्थान । समय । विकारों से चित्रित किया हुआ है । को जो । किसी मायावी जैसे । महायोग से । स्वेच्छा से उदघाटित करते हैं । उन श्रीगुरु रूपी । श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते । साक्षात्तत्त्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान ।
यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
 जिनकी प्रेरणा से । सत्य । आत्म तत्त्व । और उसके असत्य । कल्पित अर्थ का । ज्ञान हो जाता है । जो अपने । आश्रितों को । वेदों में कहे हुए । तत्त्वमसि । का प्रत्यक्ष ज्ञान कराते हैं । जिनके साक्षात्कार के बिना । इस भव सागर से । पार पाना । संभव नहीं होता है । उन श्रीगुरु रूपी  श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
नानाच्छिद्रघटोदरस्तिथमहादीपप्रभाभास्वरं । ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरणद्वारा बहिः स्पन्दते ।
जानामीति तमेव भांतमनुभात्येतत्समस्तं जगत । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
अनेक छिद्रों वाले । घड़े में रक्खे हुए । बड़े दीपक के । प्रकाश के समान । जो ज्ञान । आँख आदि । इन्द्रियों द्वारा । बाहर स्पंदित होता है । जिनकी कृपा से । मैं यह जानता हूँ । कि उस प्रकाश से ही । यह सारा संसार । प्रकाशित होता है । उन श्रीगुरु रूपी । श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः । स्त्रीबालांधजड़ोपमास्त्वहमिति भ्रान्ता भृशं वादिनः ।
मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोहसंहारिण॓ । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
स्त्रियों । बच्चों । अंधों । और मूढ के समान । देह । प्राण । इन्द्रियों । चलायमान बुद्धि । और शून्य को । मैं यह ही हूँ । बोलने वाले मोहित हैं । जो माया की शक्ति के । खेल से निर्मित । इस महान व्याकुलता का । अंत करने वाले हैं । उन श्रीगुरु रूपी । श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
राहुग्रस्तदिवाकरेंदुसदृशो मायासमाच्छादनात । संमात्रः करणोपसंहरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान ।
प्रागस्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
राहु से गृसित । सूर्य और चन्द्र के समान । माया से । सब प्रकार से ढँका होने के कारण । कारणों के हट जाने पर । अजन्मा । सोया हुआ पुरुष । प्रकट हो जाता है । ज्ञान देते समय । जो यह । पहचान करा देते हैं कि । पूर्व में सोये हुए । यह तुम ही थे । उन श्रीगुरु रूपी । श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि । व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
बचपन आदि । शारीरिक अवस्थाओं । जागृत आदि । मानसिक अवस्थाओं । और अन्य । सभी अवस्थाओं में विद्यमान । और उनसे अलग । सदा । मैं यह हूँ । की स्फुरणा करने वाले । अपने आत्मा को । स्मरण करने पर । जो प्रसन्नता । एवं सुन्दरता से । प्रकट कर देते हैं । उन श्रीगुरु रूपी । श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसम्बन्धतः । शिष्याचार्यतया तथैव पितृपुत्राद्यात्मना भेदतः ।
स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिभ्रामितः । तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
स्वयं के । विभिन्न रूपों में । जो विश्व को । कार्य और कारण सम्बन्ध से । अपने और स्वामी के सम्बन्ध से । गुरु और शिष्य सम्बन्ध से । और पिता एवं पुत्र आदि के सम्बन्ध से । देखता है । स्वपन और जागृति में । जो यह पुरुष । जिनकी माया द्वारा । घुमाया जाता सा लगता है । उन श्रीगुरु रूपी । श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
भूरम्भांस्यनलोऽनिलोऽम्बरमहर्नाथो हिमांशुः पुमान । इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम ।
नान्यत्किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभोस्तस्मै । श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।
जो भी । इस स्थिर और । गतिशील जगत में । दिखाई देता है । वह जिसके । भूमि । जल । अग्नि । वायु । आकाश । सूर्य । चन्द्र । और पुरुष आदि । आठ रूपों में से है । विचार करने पर । जिससे परे । कुछ और । विद्यमान नहीं है । सर्वव्यापक । उन श्रीगुरु रूपी । श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।
सर्वात्मत्वमिति स्फुटिकृतमिदं यस्मादमुष्मिन स्तवे । तेनास्य श्रवणात्तदर्थमननाद्धयानाच्च संकीर्तनात ।
सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः । सिद्ध्येत्तत्पुनरष्टधा परिणतम चैश्वर्यमव्याहतम ।
सबके आत्मा । आप ही हैं । जिनकी स्तुति से । यह ज्ञान हो जाता है । जिनके बारे में सुनने से । उनके अर्थ पर । विचार करने से । ध्यान और भजन करने से । सबके आत्मारूप आप । समस्त विभूतियों सहित । ईश्वर स्वयं । प्रकट हो जाते हैं । और अपने अप्रतिहत ( जिसको रोका न जा सके ) ऐश्वर्य से । जो पुनः । आठ रूपों में । प्रकट हो जाते हैं । उन श्रीगुरु रूपी । श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...