शुक्रवार, अप्रैल 06, 2012

आप इन सब में कहाँ पर हैं ?

आपने किसी खूबसूरत कार को देखा । उसकी पालि‍श को छुआ । उसके रूप आकार को देखा । इससे जो उपजा । वह संवेदन है । उसके बाद विचार का आगमन होता है । जो कहता है - कितना अच्छा हो कि यदि यह मुझे मिल जाये । कितना अच्छा हो कि - मैं इसमें बैठूं । और इसकी सवारी करता हुआ कहीं दूर निकल जाऊँ । तो इस सब में क्या हो रहा है ? विचार दखल देता है । संवेदना को रूप आकार देता है । विचार आपकी संवेदना को वह काल्पनिक छवि देता है । जिसमें आप कार में बैठे । उसकी सवारी कर रहे हैं । इसी क्षण जबकि आपके विचार द्वारा - कार में बैठे होने । सवारी की जाने की । छवि तैयार की जा रही है । एक दूसरा काम भी होता है । वह है - इच्छा का जन्म ।  जब विचार संवेदना को एक आकार । एक छवि दे रहा होता है । तब ही इच्छा भी जन्मती है । संवेदना तो हमारे अस्तित्व । हमारे होने तरीका या उसका एक हिस्सा है । लेकिन हमने इच्छा का दमन । या उस पर जीत हासिल करना । या उसके साथ ही उसकी सभी समस्याओं सहित जीना सीख लिया है । अब यदि आप यह सब समझ गये हैं । बौद्धिक रूप से ही नहीं पर यथार्थतः वास्तविक रूप में कि जब विचार संवदेना को आकार दे रहा होता है । तभी दूसरी ओर इच्छा भी जन्म ले रही होती है । तो अब यह प्रश्न उठता है कि - क्या यह संभव है कि जब हम कार को देखें । और छुएं । जो कि संवेदना है । उस समय समानान्तर रूप से । विचार किसी छवि को न गढे़ । तो इस अंतराल को बनाये रखें । और शुभकामना ये की जा सकती है कि - आप इन सब में कहाँ पर हैं ?
क्या यह हो सकता है कि - संवेदना ही हो । विचार न हो ? प्रश्न है कि क्या कोई ऐसी जगह । एक अंतराल है । जहां पर केवल संवेदन हो । जहां ऐसा ना हो कि विचार आये । और संवेदन पर नियंत्रण कर ले । यही समस्या है ।
क्यों विचार छवि गढ़ता है । और संवेदना पर कब्जा कर लेता है ? क्या यह संभव है कि हम एक सुन्दर शर्ट को देखें । उसे छुएं । महसूस करें । और ठहर जायें । इस अहसास में विचार को ना घुसने दें ? क्या आपने कभी ऐसा कुछ करने की कोशिश की ? जब विचार संवेदना या अहसास के क्षेत्र में आ जाता है । और विचार भी संवेदन ही है । तब विचार संवेदना या अहसास पर काबू कर लेता है । और इच्छा या कामना आरंभ हो जाती है । क्या यह संभव है कि हम केवल देखें । जांचें । सम्पर्क करें । महसूस करें । इसके अलावा और कुछ नहीं हो ?
इस सब में अनुशासन की कोई जगह नहीं है । क्योंकि जब क्षण से आप अनुशासन की शुरूआत करते हैं । यह भी कुछ प्राप्त करने या हो जाने की इच्छा का एक दूसरा ही रूप होता है ।
तो हमें इच्छा को पैदा होते देखना है । उसका आरंभ देखना है कि उन पलों में क्या होता है । आपको शर्ट तुरन्त ही खरीद नहीं लेनी है । पर देखना है कि होता क्या है ? आप उसकी ओर देख सकते हैं । पर हम शर्ट के अतिरिक्त भी

कुछ अन्य में ही आतुर होते हैं । शर्ट किसी आदमी किसी औरत या कोई प्रतिष्ठा पूर्ण स्थिति जिसके कारण कि हमारे पास वह धैर्य पूर्ण शांत समय नहीं है कि हम इन सब बातों की तरफ गौर करें ।
ऐसा क्यों है कि - सभी धर्म । सारे तथाकथित धार्मिक लोग इच्छाओं का दमन करते हैं ? सारी दुनियाँ में साधु । सन्यासी । इच्छाओं को इंकार करते हैं । इसके बावजूद कि - वो उनके भीतर भी उबल रही होती हैं ? कामनाओं की अग्नि जल रही होती है । पर वे उसका दमन कर । या उस इच्छा को किसी चिहन से सम्बद्ध कर । मान्य कर । या किसी व्यक्ति । अथवा छवि । छवि को अपनी इच्छाएं समर्पित कर । इंकार करते हैं । लेकिन इसके बावजूद वह इच्छाएं बनी रहती हैं ।
हम में से बहुत से लोग जब तक कि हम अपनी इच्छाओं के प्रति जागरूक हों । या इनको तृप्त करें । या द्वंद्व में पड़ जायें । यह संघर्ष चलता ही रहता है । यहां हम न तो इनके दमन की वकालत कर रहे हैं । ना इनके सामने समर्पण करने की । ना ही इनका नियंत्रण करने की । क्योंकि यह सब तो सारी दुनियां में हर एक धार्मिक व्यक्ति द्वारा किया ही जा रहा है ।
हमें इन्हें बहुत ही सूक्ष्मता और पास से देखना होगा । ताकि इनके सम्बन्ध में हमारी अपनी एक समझ बनें । यह कैसे उगती हैं । इनकी प्रकृति आदि । इस प्रकार की समझ बनने के उपरांत । इनके बारे में एक सहज आत्म जागरूकता रहे । ताकि कोई बुद्धिमानी प्रकट हो । केवल तब ही सारे संव्यवहार बुद्धिमत्ता पूर्ण सम्पन्न हो सकेंगे । ना कि इच्छाएं ।
अपने ही बारे में सीखने और जानने के लिए नमृता की अत्यंत आवश्यकता होती है । अगर आप यह कहते हुए सीखना चाहते हैं - कि मैं अपने को जानता हूँ ? तो वहीं पर अपने को सीखने जानने की प्रक्रिया का अंत कर रहे हैं । यदि आप यह कहते हैं कि - मुझ में अपने बारे में सीखने जानने के लिए है ही क्या ? क्योंकि मैं जानता हूँ कि - मैं क्या हूं ?  मैं यादों । संकल्पनाओं । अनुभवों । पंरपराओं । और सशर्त ढांचों में ढला अस्तित्व हूं । जो अनन्त विरोधाभासी प्रतिक्रियाएं देता है । तो इस तरह भी आप अपने बारे में सीखना जानना रोक रहे हैं । अपने आपके बारे में जानने समझने के लिए भी विचारणीय विनमृता की जरूरत होती है । तो कभी भी न सोचें कि - आप कुछ 


जानते हैं ? यहीं से अपने आपको शुरू से जाना जा सकता है । और इस दौरान संग्रह प्रवृत्ति को छोड़ दें । क्योंकि जिस क्षण से आप अपने बारे में ही खोज करते हुए सूचनाओं का संग्रह आरंभ करते हैं । उसी क्षण से यही ज्ञान उस खोज का आधार बन जाता है । जिसे आप अपनी ही जांच या सीखना कह रहें हैं । इसलिए जो भी आप सीखते जानते हैं । वो उसी आधार में जुड़ना शुरू हो जाता है । जो कि आप पहले से ही जानते हैं । विनमृता मन की वह अवस्था है । जिसमें संग्रह या इकट्ठा करने की प्रवृत्ति नहीं होती । जिसमें यह कभी नहीं कहा जाता कि - मैं जानता हूं ।
ध्यान यह पता करना है कि - क्या मस्तिष्क या दिमाग को । उसकी सभी गतिविधियों सहित । उसके सभी अनुभवों सहित । पूरी तरह शांत । खामोश किया जा सकता है ? बल पूर्वक नहीं । क्योंकि जब जबर्दस्ती की जाती है । वहां द्वंद्व पैदा होता है ।


स्वत्व । हमारी अपनी सत्ता कहती है - मुझे अद्भुत अनुभव प्राप्त करना है । इसलिए मुझे अपने दिमाग को शांत रखना ही है ।  लेकिन हमारा स्वत्व ऐसा नहीं कर पाता । लेकिन यदि हम जिज्ञासा करें । अवलोकन करें । विचार की सारी गतिविधियों को सुनें । उसकी शर्तों । उसकी अपेक्षाओं । लक्ष्यों । उसके भयों । उसके सुखों को देखें । यह देखें कि - दिमाग किस तरह काम कर रहा है ? तब आप पाएंगे कि - मस्तिष्क असाधारण रूप से शांत है । यह शांति नीरवता नींद नहीं है । अपितु यह अत्यंत सक्रियता है । और इसलिए शांति है । एक बहुत बड़ा डायनेमो । जो अच्छी तरह काम कर रहा हो । वह बमुश्किल बहुत ही कम आवाज करता है । केवल तब जब घर्षण होता है । द्वंद्व होता है । वहीं पर शोर होता है । जे. कृष्णमूर्ति

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

बहुत ही उत्तम

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