बुधवार, जुलाई 20, 2011

दिल्ली दर्शन मेरे साथ - विनोद त्रिपाठी 1

दुनियाँ लगती है बेकार । जब चङती है सतनाम की खुमारी । छापा जब तक न पङे । तब तक हर लडकी है कुमारी । जय हो शंकर भगवान की । जय हो भोलेनाथ की ।
बुल्ला को खुल्लम खुल्ला छापकर तुमने धोती को फ़ाडकर रुमाल कर दिया है । अब तुम राजीव राजा नहीं रहे । अब तुम दिलदार राजा हो गये हो । मैंने कहा था कि - मैं फ़िर आऊँगा ।
आज मैं फ़िर से 100% सच्चा अनुभव लेकर आया हूँ । विश्वास करना । इसमें 1% भी कल्पना नहीं है । आज की बात में न तो कोई तुमसे सवाल है । और न ही पाठकों को कोई सुझाव । ये सच्ची घटना सिर्फ़ 1 अनुभव है । ऐसा अनुभव जब 2 अलग अलग विचारों वाले लोग एक साथ कहीं जाये । तो फ़िर क्या होता है ?
मुझे आज भी अच्छी तरह याद है । मैं दिल्ली 1999 का गया हुआ हूँ । ( इस हिसाब से तो मैं दिल्ली 20वीं सदी का गया हुआ हूँ । जबसे 21वीं सदी शुरु हुई है । मैं दिल्ली जा ही नहीं पाया ) मुझे ये भी याद है कि उस दिन शुक्रवार था । और 25 दिसम्बर था । मैं झूठ नहीं बोल रहा । बेशक अपने अपने कैलेन्डर चेक कर

लो । मुझे उस पी टी मास्टर ने कहा था कि - त्रिपाठी जी ! आपके कोलेज को छुट्टियाँ हैं । और मेरे, मेरी पत्नी और बच्चों के स्कूलों को भी छुट्टियाँ हैं । तो चलो एक साथ कहीं घूमने चलते हैं ।
मैंने कहा - ठीक है चलो । लेकिन कहाँ चलें ?
तब वो बोला - दिल्ली ।
25 दिसम्बर 1999 शुक्रवार को मैं और मेरी पत्नी बिलकुल रेडी थे ( मेरे कोई औलाद नहीं है ) हम लोग पी टी मास्टर का इन्तजार कर रहे थे । तभी वो अपनी पत्नी और बेटियों के साथ आ गया ( उस समय उसकी बेटियाँ बहुत ही छोटी थी ) पी टी मास्टर नीले रंग की जींस और भूरे रंग का कोट पहन कर आया था । उसकी पत्नी पीले रंग के कसे हुये पंजाबी सूट में वो लग रही थी । मैंने सोचा - लगता है । आज तो चटाके पटाके हो जायेंगे ।

इतने में मेरा बाप भी कंगारू की तरह 1 टांग पर कूदता हुआ आया । और मास्टरनी को बार बार नमस्ते बुलाने लगा । मैंने मन में कहा - लूज कैरेक्टर ।
उसके बाद हम लोग कार में बैठे । उस समय मेरे पास मारूती 800 थी ( लेकिन आजकल सिर्फ़ स्कूटर जिन्दाबाद ही है ) जाते जाते मैंने अपने बाप और नौकर " पान्डु " को बोल दिया - खबरदार सालो ! अगर पीछे से खाली मकान का कुछ नाजायज फ़ायदा उठाया तो । मैं वापिस आकर चेक करुँगा ।
इतना कहकर हम लोग निकल लिये । मैं कार चला रहा था । मास्टर मेरी बगल वाली सीट पर था । मेरी पत्नी और मास्टरनी पीछे वाली सीटों पर । दोनों

बच्चियाँ उनकी गोद में थी । सामान पीछे डीगी में था । मैंने अलताफ़ राजा के गाने लगाये हुये थे । 1 - तुम तो ठहरे परदेसी साथ क्या निभाओगे 2 - इशक और प्यार का मजा लीजिये 3 - कर लो प्यार कर लो प्यार कर लो प्यार ।
जब कुछ घन्टे बीत गये । तो मास्टर अचानक बोल पडा - त्रिपाठी जी ! धन्य है मेरा जिगर । जो मैं आपके साथ बैठकर इतनी देर से ये गाने सुन रहा हूँ ।
मैंने शान्त मन से कहा - कोई और गाने लगा लेते हैं ।
तब तपाक से उसने अपने कोट की जेब से कैसेट निकाल कर मुझे दे दी । मैंने लगा दी । पता नहीं कहाँ से उठाकर लाया था । पुरानी राजकपूर की फ़िल्मों के बेकार गाने । मैं बोर हो रहा था । और वो खुश हो रहा था ।

जब दोपहर हुई । मैंने कहा - कहीं खाना खा लेते हैं ।
तब वो बोला - सामने ढाबा है । वहाँ कार रोक लो ।
मैंने कहा - वो तो ड्राइवरों का ढाबा लगता है । किसी अच्छी जगह रूकते हैं ।
तो वो बोला - सब जगह अच्छी ही होती है । यहीं रोक लो ( मेरे हिसाब से उसने जानबूझ कर वहाँ रूकवाया था । वो कंजूस है । हमेशा सस्ता काम ही करता है )
जब हम वहाँ खाना खाने बैठे । तो वो बोला - त्रिपाठी जी ! आर्डर दीजिये क्या खायेंगे आप ?
मैंने मन में कहा - आर्डर तो सा.. ऐसे माँग रहा है जैसे..."
इतने में ढाबे वाला लडका बोला - यहाँ सिर्फ़ दाल ही मिलेगी ।
इससे पहले मैं कुछ कहता । मास्टर बोल पडा - हाँ ले आओ । खैर, फ़िर वहाँ से खाना खाकर चल पडे । दिल्ली

पहुँचते पहुँचते अन्धेरा हो गया था ( सर्दियों मे धुँध के कारण शाम 5 या 6 बजे तक ही अन्धेरा हो गया था ) हम लोग दिल्ली से अनजान ही थे ।
मैंने कहा - अच्छा होटल कहाँ से ढूँढे ?
मास्टर बोला - ढूँढना क्या है । कोई भी चलेगा ।
समय बीत रहा था । मैंने किसी भीड भडके वाले बाजार में कार पार्क की । फ़िर होटल तलाशने लगे । बेकार सा बाजार था । बहुत ही भीड थी । हम लोग दुकानदारों से पूछ रहे थे । वहाँ दुकानों के उपर कमरे बने हुये थे ।
मास्टर बोला - त्रिपाठी जी ! यही रूक जाते हैं ।
मैंने कहा - ये तो आम कमरे हैं । किसी होटल में चलते हैं । वहाँ केबल टी वी भी होगा ।

मास्टर बोला - नहीं नहीं ये ठीक हैं ( मुझे पता था । वो सस्ते के चक्कर में बोल रहा था )
जब कमरा देखा । तो बेकार था । बाथरूम भी साफ़ नहीं था ।
मैंने मास्टर से कहा - ये ठीक नहीं है ।
तब मास्टर बोला - सब ठीक ही है । रात ही तो काटनी है । हमने कौन सा कमरा खरीद के घर ले जाना है । उस समय मैंने उसे मन में कितनी गालियाँ दी । ये सिर्फ़ मैं जानता हूँ । या भगवान ।
खैर कमरा ले लिया किराये पर । हमने वहाँ के आदमी से पूछा - खाने में क्या मिलेगा ?
तो वो साला उल्लू की दुम बोला - खाना नहीं हम देते । सिर्फ़ कमरा देते हैं ।
तब फ़िर हम लोग ( दोनों परिवार ) खाने के लिये किसी होटल की तलाश में निकले । मास्टर रास्ते में पराई औरतों को चोर आँख से देख रहा था । लेकिन मेरा उस दिन मूड ठीक नहीं था । रास्ते में घटिया किस्म के बाजार और दुकानें आ रही थी ।

तभी 1 सस्ता सा होटल नजर आया । मास्टर हम सबको बोला - बस आ जाओ । बन गया काम ।
खैर वहाँ खाना खाया । और वापिस अपने अपने कमरे में आ गये । मेरी पत्नी सो गयी थी । मैं सिगरेट पीते हुए खिडकी से बाहर देख रहा था । सोचा अगर अकेले ( मैं और मेरी पत्नी ) आये होते । तो किसी अच्छे होटल में रहते । जहाँ केबल टीवी होता । मैं आराम से पैग लगाता । फ़िर हम दोनों बढिया खाना खाते । मैंने उस दिन फ़ैसला कर लिया था कि - इस मास्टर के साथ दोबारा कभी भी कहीं भी घूमने नहीं जाऊँगा । इस बार तो मैं फ़ँस गया । मैंने 1 बात वहाँ नोट की । रात के 11 बजने वाले थे । लेकिन फ़िर भी सडकों पर भीड और शोरगुल बहुत था ।

मैंने सोचा । दिसम्बर की रात को इतना शोरगुल और भीड । पता नहीं गर्मियों में कितनी भीड होती होगी ? उस दिन दिल्ली के प्रति मेरे मन में नफ़रत के भाव से बन गये थे । मैं सोने की कोशिश करते हुए, दिल्ली की तुलना अपने मध्य प्रदेश से करने लगा । खास कर भोपाल और लाला लाजपत राय नगर ( जहाँ मैं रहता हूँ ) से ।
सुबह हुई । मास्टर किसी पास की दुकान से चाय ले आया था । मेरी पत्नी ने साथ में लाये हुये बिस्कुट के पैकेट को खोल लिया । मैंने मास्टर को कहा - मैडम जी । एलिना और स्टेफ़ी ( उसकी बेटियों के नाम ) ने चाय पी ली ?
तब मास्टर बोला - हाँ  उन लोगों ने अपने कमरे में ही पी ली थी ।
मैंने मन में सोचा - रात को सा.. ने चटाके पटाके किये होंगे ।
मैंने कहा - मास्टर जी ! नाशते का क्या इरादा है ?

तब वो बोला - नाशता क्या ? नाशता ही नाश्ता है । हम जैम साथ में ले आये हैं । मैं ब्रेड का पैकेट ले आता हूँ । बढिया नाशता करेंगे ।
मैने सीधा कह दिया - मास्टर जी ! आप बच्चों वाली बात मत कीजिये । कहीं चलकर ठीक से नाशता कर लेते हैं ।
खैर मैंने उस हराम के ढक्कन को मना लिया । लेकिन मैं मन में बार बार सोच रहा था कि कहाँ इस ... के चक्कर में फ़ँस गया । हम लोग पूछ्ते पूछते " पराँठे वाली गली " में पहुँच गये । वहाँ सरदार लोगों की दुकानें थी । सिर्फ़ पराँठे की । हम भी बैठ गये 1 जगह । बहुत ही बढिया पराँठे थे । 1 प्लेट में 2 पराँठे थे । साथ में 2 किस्म के अचार और 2 किस्म की चटनी । 22 रुपये प्लेट थी । मास्टर भी नखरे करता हुआ 3 पराँठे खा ही गया ।
उसके बाद हम लोग दिल्ली घूमे । जितना हम घूम सकते थे । हम लाल किला पहुँचे । वहाँ मास्टर अपने बच्चों को देशभक्ति की नकली कहानियाँ सुना रहा था । वहा अंग्रेज भी आये हुये थे ।
मास्टर की छोटी बेटी अपने बाप को पूछती - पापा ये लोग कौन हैं ? ( उसका इशारा अंग्रेजो की तरफ़ था )
तब मास्टर बोला - ये अंग्रेज लोग हैं ।
उसकी बेटी ने फ़िर पूछा - क्या ये लोग यहाँ पर रहते हैं ?
तब मास्टर थोडा गुस्से में बोला - क्या करना है । इनको यहाँ रख कर । बडी मुश्किल से तो निकाले हैं । खैर उसके बाद हम लोग जन्तर मन्तर चले गये । वहाँ भी मास्टर अपनी बेटियों को ग्यान और विग्यान का भाशन देता रहा । फ़िर हम लोग कनाट प्लेस जैसी जगहों पर भी हो आये । बडी शानदार जगह थी ।

मैंने सोचा । जिस जगह हमने कमरा किराये पर लिया है । वो जगह तो बडी थर्ड क्लास है । लेकिन ये जगह तो फ़र्स्ट क्लास है । यहाँ तो बहुत ही अमीर लोग रहते होंगे । मैंने बडे शौक से वहाँ की शानदार बिल्डिंगे देखी । और खुश हुआ । लेकिन मास्टर वहाँ खुश नजर नहीं आ रहा था ( बेचारा पैदायशी सस्ती सोच वाला आदमी है )
दुपहर भी ढल चली थी । मैंने कहा - मास्टर जी ! क्या इरादा है ? खाना कहाँ खाना है ।
तब वो बोला - खाना क्या ? सुबह कर तो लिया था ।
मैंने कहा - सुबह किया था । उसके बाद पैदल भी कितना घूमे । अब शाम के 4 बजने वाले हैं । कोई छोटी मोटी चीज ही खा लो ।

तो मास्टर बेमन से चल पडा । इस बार मुझे मौका मिल गया । मैं उसे किसी अच्छे से रेस्टोरेन्ट में ले गया । वह बडा डरते डरते घुस रहा था । वहाँ मैंने अपनी मन पसन्द चीज का आर्डर दिया ( मैं बाजारी खाना वैसे तो कम ही खाता हूँ । लेकिन मुझे मद्रासी डोसा बहुत पसन्द है ) लेकिन उस ढक्कन ने वही काम किया । उसने अपने लिये ब्रेड सेन्डविच ही मंगवाये । उसके बाद हम वापिस कमरे में आ गये । हम लोग थक चुके थे । मैंने जब देखा कि मास्टर और उसकी पत्नी अपने कमरे में आराम कर रहे हैं । तो मैं चुपचाप जाकर किसी पास की दुकान से शराब की छोटी बोतल ले आया । साथ में नमकीन का छोटा पैकेट । मैंने आराम से बैठ कर शराब पी ( मेरी पत्नी बेचारी उस समय आराम कर रही थी ) मैं शराब पीते हुए सोच रहा था कि हमारे मध्य प्रदेश में यहाँ के मुकाबले कही अधिक शान्ती है । भोपाल में कितने ही ताल हैं । घाट हैं । खास कर हमारा " लाल लाजपत राय नगर " बिलकुल 1 कोने में होने के कारण वहाँ सन्नाटा और शान्ती है ।
कृमशः

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